जय गजबदन षडाननमाता ।
भव भव विभव पराभव कारिनि।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस् सारदा सेष।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायनी पुरारी पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे ।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबहीं के ।।
कीन्हेऊँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेही ।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी ।
खसी माल मूरति मुसकानी ।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी ।
पूजिहिं मनकामना तुम्हारी ।।
नारद बचन सदा सुचि साचा ।
सो बरू मिलिहि जाहिं मनु राचा ।।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरू सहज सुंदर साँवरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेह जानत रावरो ।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ।।
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाय कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ।।
अथः गोस्वामी तुलसीदास कृत चौपाई।